देश में समानता लाने के चक्कर में ‘अधबीच’ में हम….
“हम भारत के लोग………” ये शब्द सुनते ही सातवी कक्षा में पढ़ी हुई (या पड़ी हुई) नागरिक शास्त्र की क़िताब आँखों में तैर जाती है। जिस प्रकार नेमीषाराण्य तीर्थ में शौनक आदि अट्ठासी हज़ार ऋषियों ने सूतजी से पूछा था, उसी प्रकार हम भी पूछना चाहते थे कि इस शास्त्र का क्या फल है, क्या विधान है और किस दिन इसको पढ़ना चाहिए। हमें तो साल में कोई भी दिन इसके पठन-पाठन के लिए अनुकूल नहीं लगता था। लेकिन हमारे लगने न लगने से क्या होता है, स्कूल में तो वही होता है जो मंज़ूरे मास्साब होता है। उन्होंने इस किताब में छपी हुई संविधान की उद्देशिका हमें निरुद्देश्य भाव से रटवा दी थी। या यूँ कहें कि देश में समानता लाने की कसम हमें मध्यान्ह भोजन के बिना ही खिला दी थी। कसम खाते ही समानता के बारे में पहले-पहल हमें जो समझ आया, उसके मुताबिक हम स्कूल की छात्रवृत्ति वाली कतार में जाकर खड़े हो गए। वहां हमसे हमारी जाति पूछी गई। हमने कहा जब समानता ही लाना है तो जाति क्यों पूछते हो, जो इन्हें दे रहे हो वो हमें भी दे दो। वे बोले “तुम पहले से ही ऊपर हो, तुम्हें दिया तो तुम और ऊपर हो जाओगे और देश में समानता नहीं आ पाएगी।” फिर हम कतार से बाहर धकेल दिए गए। वह एक ज्ञानवर्धक धक्का था, उसी के प्रभाव से समानता वाली कसम हमें प्रैक्टिकली समझ आई। इस ज्ञान के फलस्वरुप हमारी समदृष्टि भई, और हम हर तरह के अहंकार से मुक्त हो गए। हमें अपने 84 और उनके 48 एक सामान दिखाई देने लगे, बल्कि उनके 48 ही ज़्यादा थे, हमारे 84 तो चौरासी लाख योनियों का पाप भर था.
लेकिन इस समदृष्टि के बावजूद हम ये नहीं जान पाए कि हम उनसे कितने हज़ार मील ऊपर थे और वहां तक पहुंचने में उन्हें कितने हज़ार युग लगेंगे। और गर वे ऊपर आ गए तो हमें कैसे पता चलेगा कि वे ऊपर आ चुके हैं? इसी तरह के झंझावत में खोए हुए हम ऊंचाई पर तन्हा खड़े थे कि तभी देवकृपा से आसमान में कुछ हलचल हुई, देवताओं ने फूल बरसाए, अप्सराएँ नृत्य करने लगीं और आकाशवाणी हुई कि वे ऊपर आ चुके हैं। यह सुनकर ख़ुशी से हमारा दम निकलने ही वाला था कि तभी दूसरी आकाशवाणी हुई कि “लेकिन, वे अपने बच्चों को नीचे ही भूल आए हैं”।
हम ज़ोर से चीखे “हे माँ! माताजी! अब क्या वे दुबारा नीचे जाएँगे?”
“नहीं मुर्ख! वे नीचे क्यों जाएँगे? उनके बच्चों को भी तमाम सुविधाएँ देकर ऊपर लाया जाएगा।”
“और हमारे बच्चे?”
“वे तो पहले से ही ऊपर हैं.. तुम तो कब से ऊपर ही पड़े हो, तो तुम्हारे बच्चे नीचे कैसे होंगे?”
अब नागरिक शास्त्र खुलकर हमारी समझ में आ रहा था. हम अपनी सत्तर पुश्तों के साथ ऊंचाई पर खड़े थे, वे हर जगह छड़े थे. हम ऊंचाई पर भी दर्द भरे नगमे गा रहे थे, वे समुद्र तल पर भी गज़ब ढा रहे थे… इस तरह हम भारत के लोग… धीरे-धीरे क़रीब आ रहे थे।
लेखिका :- सारिका गुप्ता