नारीवादी पुरुष बनाम पुरुषवादी नारियां

आमतौर पर मैं फेमिनिज्म यानी नारीवाद पर बात नहीं करती हूँ, इस वजह से कभी-कभी मुझे पाप भी लग जाता है और लोग मुझे गैर-नारीवादी समझने लगते हैं। गैर-नारीवादी होना पुरुषवादी होने से अलग है। हालाँकि ‘पुरुषवाद’ जैसा कुछ होता भी है या नहीं, इसका मुझे कोई आइडिया नहीं है और मुझे यकीन है कि पुरुषों को भी इस बारे में कोई आइडिया नहीं होगा। ‘पुरुषवाद’ के लिए ‘फेमिनिज्म’ टाइप का कोई कुलीन शब्द भी अंग्रेज़ी में नजर नहीं आता, और जिस चीज़ के लिए अंग्रेज़ी में कोई शब्द ना हो, उसका होना क्या और न होना क्या!

खैर, मेरी एक सहेली ने बताया कि वह पुरुषवादी है; उसने अपने पति को नौकरी करने, मनचाहे कपड़े पहनने, गाड़ी चलाने और अपने रिश्तेदारों से मिलने-बतियाने की आज़ादी दे रखी है। मैं हैरान थी कि आखिर इत्ती सारी आज़ादी उसके पास आई कहाँ से जो उसने अपने पति को दे दी। एक पल को वह मुझे किसी महामहिला सी दिखाई दी, जिसने इस घोर नारीवादी युग में भी पुरुषवादी होना चुना। लेकिन उसने तुरंत स्वयं का सामान्यीकरण करते हुए कहा कि इसमें कोई खास बात नहीं है, ऐसी उदार महिलाऐं हर गली-कुचे में पाई जाती हैं।

‘पुरुषवादी नारियों’ की तरह ही ‘नारीवादी पुरुष’ भी हमारे समाज में प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। हमारा ज़्यादातर नारीवाद औरतों को नौकरी करने देने के इर्द-गिर्द ठिठकता रहता है। इस लिहाज़ से, हमारा इस्त्री वाला ज्ञानु घनघोर नारीवादी है। वह अपनी स्त्री को हर काम में आगे रखता है। बल्कि उसे आगे रखने के चक्कर में, कई-कई दिनों तक वह खुद दूकान पर नहीं जाता है, मगर इस बात का उसे ज़रा भी घमंड नहीं है। वहीं, हमारी काम वाली मेहरी का पति भी नारीवाद का हट्टा-कट्टा उदहारण है। उसे अपनी पत्नी के काम पर जाने से कभी ऐतराज न रहा, बल्कि शादी के महीने भर के भीतर ही उसने अपनी चौकीदारी की नौकरी छोड़ दी और पत्नी को काम पर भेजना शुरू कर दिया कि कहीं उसकी बर्तन मांजने की प्रतिभा घर की चार दिवारी में कैद होकर न रह जाए।

ऐसा नहीं है कि नारीवाद की लहर सिर्फ एक विशेष तबके में ही बहती है, शहर के बाकि हिस्सों में भी कुछ धाराएं यदा-कदा अदा के साथ घुस आती हैं। जैसे हमारे पड़ोस वाले टुटेजा साहब ने मिसेज टुटेजा को एक पीला स्कूटर दिला दिया है, जिस पर वे बच्चों को ट्यूशन वगैरह लेने-छोड़ने जाती हैं, और सब्जी-किराना इत्यादि लादकर ले आती हैं। कभी-कभी टुटेजा साहब भी पिछली सीट पर लद जाते हैं, फोटू खिंचवाते हैं और पूरी ज़िम्मेदारी से उसे “छबी चमकाओ पृष्ठ” पर चेपते भी हैं। इस तरह, नारीवाद को बढ़ावा देने में टुटेजा साहब अंड-शंड योगदान देते रहते हैं। हालाँकि गाड़ी चलाने और नारीवाद का आपस में क्या संबंध है मुझे कभी पल्ले नी पड़ा, लेकिन फिर भी कोई तो संबंध है वरना सऊदी महिलाओं को ड्राइविंग लाइसेंस के लिए सदियों इंतज़ार न करना पड़ता। भगवान भला करे महाराज दशरथ का, जो उन्होंने कैकयी को युद्ध में रथ चलाने की परमिशन दे दी थी, वरना हमारा नारीवाद भी आर.टी.ओ. कार्यालय के आजू-बाजू भटक रहा होता।    
लेखिका :- सारिका गुप्ता

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