रिपोर्टिंग में ऐसा कर्फ्यू नहीं देखा – कीर्ति राणा

यह लेख अपनी (पत्रकार) बिरादरी को समर्पित…
सिख विरोधी दंगों के दौरान लागू मार्शल्ला के बीच रिपोर्टिंग करना भी उतना चुनौतीपूर्ण नहीं था जितना कि इस ‘मिस्टर अनविजिबल’ के कारनामों का सामना खौफ पैदा करने वाला है।

रिपोर्टिंग तो मार्शल लॉ में भी कि लेकिन ऐसा कर्फ्यू नहीं देखा!

जो विधिवत डिग्रीधारी पत्रकार हैं उनके और जो मेरी तरह बिना डिग्री-डिप्लोमा के दशकों से इस पेशे में जमे हुए हैं उन सबके लिए भी खौफनाक कोरोना के कारनामों की रिपोर्टिंग का यह पहला अनुभव है। जो पांच छह दशक से पत्रकारिता में नाम जितनी पहचान पा सके हैं वो सब और अभी जो युवा पत्रकार फील्ड में रात-दिन एक किए हुए हैं उन्होंने कल्पना भी नहीं की होगी कि बिना दंगे फसाद वाला ऐसा कर्फ्यू लगेगा। जिसमें ना दुकानें जलेंगी न जय जय सियाराम के उदघोष गूंजेंगे, न ही पथराव, चाकू छूरे चलेंगे फिर भी गलियों से चौराहे तक नहीं पूरे देश में सन्नाटा रहेगा।

हर खबर को ब्रेकिंग न्यूज बनाने वाले इलेक्ट्रानिक मीडिया को तो कुछ साल ही हुए हैं। सोशल मीडिया नहीं था तब भी अफवाहें खूब दौड़ती थी मंदिर-मंदिर मूर्तियां दूध पीती थीं, अब वह सारा काम कट, कॉपी, पेस्ट और फारवर्ड से हो रहा है। इन दोनों मीडिया की बनिस्बत पीढ़ियों पहले से जमीनी पत्रकारिता की जड़ें मजबूत हैं। आजादी आंदोलन हो या उसके बाद प्रधानमंत्री की रैली, चुनावी सभा, बाढ़, भूकंप, अकाल, अग्निकांड, रेल-बस हादसा, मेले में भगदड़, बारह साल में आने वाले सिंहस्थ, अर्द्ध कुंभ, संत सम्मेलन, शिखर वार्ता से लेकर वॉर रिपोर्टिंग, क्षेत्रीय जातिवादी सम्मेलन, धार्मिक महोत्सव-रथयात्रा, लोकसभा-विधानसभा चुनाव, सांप्रदायिक दंगे, बाबरी मस्जिद ध्वंस कांड आदि का कवरेज तो पिछले सात-आठ दशक में लगभग फील्ड रिपोर्टरों ने ही किया है। सदियों से जिस पत्रकारिता की धाक रही है उसने भी इससे पहले प्लेग बीमारी का ही चेहरा देखा था, लेकिन ये कोरोना या तो मिस्टर इंडिया की तरह अदृश्य है या शरद जोशी के अंधों का हाथी जैसा है। ये ‘मिस्टर अनविजीबल’ कब, किस पर, कैसे हमला कर दे कुछ पता ही नहीं चलता।

सांप्रदायिक दंगों के दौरान पथराव, आगजनी, पेट्रोल बम, चाकू-तलवार के साथ एक दूसरे वर्ग को निपटाने वाले उन्मादियों पर काबू पाना पुलिस, अर्द्ध सैनिक बलों के लिए भी मुश्किल नहीं रहता। 1984 के सिख विरोधी दंगों और लागू किए मार्शल लॉ के बीच रिपोर्टिंग करना भी उतना चुनौतीपूर्ण नहीं था जितना कि इस ‘मिस्टर अनविजिबल’ के कारनामों का सामना खौफ पैदा करने वाला है। आगरा के पत्रकार पंकज कुलश्रेष्ठ के साथियों और परिजनों ने भी कहां सोचा था कि अदृश्य दुश्मन कोरोना उन पर इस तरह जानलेवा हमला करेगा।

कर्फ्यू तो उन सारे दंगों के दौरान भी लगते रहे लेकिन ये कर्फ्यू भी अलग है। दंगों के दौरान हफ्तों लगे रहने वाले कर्फ्यू के वक्त भी शाम को मोहल्लों में पासपड़ोस के परिवार इकट्ठा हो जाते थे, ताश पत्तों की बाजी के साथ सेंव परमल का दौर तो कभी अंताक्षरी भी चलती रहती थी। गलियों-चौराहों पर तैनात पुलिसकर्मियों के चाय-नाश्ते की चिंता भी पूरा मोहल्ला ही करता था।कोरोना वाले कर्फ्यू ने तो वो सारे रिश्ते-प्रेमभाव भी खत्म कर दिए। सटे हुए दो घरों की खिड़की खुले और हाय हलो के बीच खांसी का ठसका या छींक भी आ जाए तो दूसरे घर की खिड़की फटाक से बंद हो जाती है।उस जमाने के कर्फ्यू में कम से कम आत्मीयता तो रहती थी, इस कर्फ्यू ने तो अमानवीय और हददर्जे का स्वार्थी बना डाला है। कोरोना का शिकार होने वालों में चाहे सामान्य व्यक्ति हो या धन्ना सेठ चार कंधे मिलना तो ठीक फूल माला, बैंडबाजे तक नसीब नहीं हो रहे हैं।शवयात्रा ही नहीं निकली ढंग से तो उठावना और श्रद्धांजलि सभा भी क्यों हो। इस कोरोना ने कितना मोहताज कर दिया है कि पीड़ित के कंधे पर सांत्वना का हाथ तक रखने नहीं जा सकते, मोबाइल ही आंसू पोंछने के लिए रुमाल की तरह काम आ रहा है।रामजी ने तो 14 साल के वनवास को राक्षसों से युद्ध करते हुए काट लिया था, सोच कर तो देखिए कभी ये मोबाइल, नेट, टीवी, यू ट्यूब, इंस्टा, फेसबुक आदि साधन न होते तो कैसे कटता उम्र से लंबा ये कोरोना कारावास।

सांप्रदायिक तनाव वाले उस कर्फ्यू में रिपोर्टिंग करते हुए चाय-नाश्ते-खाने की चिंता फिर भी नहीं रहती थी। चाय किसी दोस्त के घर तो नाश्ता उस क्षेत्र वाले टीआई-सीएसपी के साथ हो जाता था। इस कर्फ्यू में तो घर से ही मुंह बांध कर निकलना है। पेशागत होड़ वैसी ही है कि सबसे पहले खबर, विजुअल और बाइट मुझे मिले। उस कर्फ्यू में तो एक डायरी, पेन से ही जंग जीत लेते थे लेकिन अब चश्मा, ग्लव्ज, मॉस्क, सेनेटाइजर के साथ पीपीइ किट के साथ बाइक पर सिंगल सवारी अनिवार्य सी हो गई है। जो डॉक्टर, स्वास्थ्य और पुलिसकर्मी घंटों यह एयरटाइट रक्षाकवच (पीपीइ किट) पहने रहते हैं उन पर दया आती है। इंदौर में 42, खरगोन, झाबुआ, खंडवा जैसे गर्म जिलों में 45-50 डिग्री तापमान में इसे पहने रहना कितना कष्टप्रद रहता होगा। पहले वाले कर्फ्यू-दंगों की रिपोर्टिंग करते वक्त यह सुकून भी रहता था कि घायल हुए या जनहानि के आंकडों में नाम दर्ज हो गया तो परिवार को दो-पांच लाख तो मिल ही जाएंगे। कोरोना के इस रिपोर्टिंग काल में हरियाली वाली रिपोर्टिंग की अपेक्षा रखने वाली राज्य सरकारों को अब तक यह नहीं लगा है कि उनके विभागों के मैदानी कर्मचारियों की तरह मीडियाकर्मी भी कोरोना वारियर्स हो सकते हैं। पुलिस, हेल्थ, कारपोरेशन आदि विभागों के लिए तो फिर भी सरकारी सुविधाओं की छतरियां हैं, परिवार के सदस्य को नौकरी का प्रावधान आदि भी है लेकिन खुद की मर्जी से प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया में आई पत्रकारों की फौज के लिए बस बायलाईन स्टोरी, ब्रेकिंग न्यूज अधिक हुआ तो संस्थान का बधाई पत्र पुलित्जर सम्मान मिलने जैसा है। मुंबई के चार दर्जन से अधिक मीडियाकर्मी कोरोना की बुरी नजर का शिकार हुए, इंदौर-भोपाल आदि शहरों के पत्रकार भी अस्पताल में दाखिल हुए और स्वस्थ होते ही फिर मोर्चा संभाल लिया उनके लिए न कहीं तालियां बजी और न ही पुष्पवर्षा हुई। मान-सम्मान की लालसा से दूर मीडियाकर्मियों की जमात भिड़ी हुई है कोरोना काल की रिपोर्टिंग वाले समय में अपना इतिहास अपने हाथों लिखने के लिए।

लेखक :- कीर्ति राणा, वरिष्ठ पत्राकार
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