शिव,योग,और तीसरा नेत्र

सावन माह चल रहा है आज मैं आपको लेकर चलूंगी धर्म की दुनिया में, जिसका सार योग है।योग जो शरीर की वर्तमान अवस्था को चेतन में रहते हुए आप के भीतर ईश्वरीय अवस्था को विकसित करता है।आज पूरी दुनिया योग का अनुसरण कर रही है। कई ज्ञानी तो इस खोज में लगे है कि योग आया कहाँ से, वेद पुराण उठाकर देखे तो योग पद्धति भारतीय संस्कृति का हिस्सा रही है।आज जिस योग को पूरी दुनिया अपने दैनिक जीवन मे अपना रही है अगर उस योग की उत्पत्ति की बात करे तो , उसकी उत्पत्ति भगवान शिव के द्वारा की गयी थी। वेद पुराण और वैज्ञानिक तथ्य भी यही बताते हैं की योग ही शिव है शिव ही योग, हमेशा शिवजी योग मुद्रा में ही मन की स्मृतियों में वास करते है। शिव को योगी भी कहा जाता है। बड़े बड़े ऋषियों ने शिव जी का वर्णन योग मुद्रा में ही किया है।युगों पहले योगिक परंपरा के मुताबिक हिमालय क्षेत्र में योगिक प्रक्रिया की शुरुआत हुई थी जहाँ पर आदि योगियों ने सप्तऋषियों के साथ जीवन-तंत्र की खोज करनी शुरू की जिसे आज हम योग कहते हैं। मानवता के इतिहास में पहली बार योग ने इस संभावना को खोजा और जाना कि किस तरह आप अपनी पूरी चेतना में रहकर अपनी वर्तमान अवस्था में भी योग के माध्यम से आप दूसरी अवस्था में विकसित हो सकते हैं। ऋषियों ने इस रहस्य से पर्दा उठाया और मानव जाति को बताया कि आपका जो वर्तमान ढांचा है, यह जीवन की सीमा नहीं है। बल्कि आप योग के जरिये इस ढांचे को पार कर सत्य के करीब पहुँच सकते है जिसको मोक्ष से जोड़कर देखा गया,जो जन्म मृत्य से परे है। देवताओं द्वारा मानव जाति के उद्धार और ज्ञान के प्रकाश के लिए सप्तऋषियों को भेजा गया।योगिक कथाओं में कई तरह से इसका वर्णन है।कहते है जब ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना शुरू की तो देखा कि उनकी रचना जीवन के बाद नश्वर है ,जिसको हर बार नए सिरे से सृजन करना पड़ेगा। ब्रम्हा जी को समझ नही आ रहा था कि क्या करे।जब कोई उपाय नही सुझा तो वह देवो के देव महादेव के पास गए जो योग मुद्रा में लीन थे।शिव को योग मुद्रा से जगाने के लिए ब्रम्हा ने शिव जी की कठोर तपस्या की तब शिव जी ने प्रसन्न होकर ब्रम्हा जी की समस्या का समाधान योग के द्वारा किया। जिसमें शिव अपनी वर्तमान अवस्था से परे जाकर दूसरी अवस्था मे प्रकट हुए जिसको हम अर्द्धनारीश्वर कहते है। जिसमे आधे भाग में पुरुष और आधे भाग में प्रकृति है, जो प्रजननशील है, और जीवन की सृजनकर्ता है।साथ ही सृष्टि की रचना में स्त्री और पुरुष के महत्व का भी ज्ञान कराता है।जब कोई योगी अपनी वर्तमान अवस्था के शरीर को पार कर योग की चरम सीमा में पहुँचता है तो वही शिव है और शिव ही सत्य,शिव का अर्द्धनारीश्वर रूप पुरुष और प्रकृति के बीच सामंजस्य स्थापित कर सृष्टि को संचालित करता है, पुरुष और प्रकृति में यदि संतुलन न हो तो सृष्टि की कल्पना भी नही की जा सकती,शिव ने सृष्टि रचना के लिए योग माया द्वारा अपनी शक्ति को स्वंय से पृथक किया जो स्त्री लिंग है।(शिव) पुरुष लिंग का प्रतीक है वही (शक्ति) स्त्री लिंग प्रतीक होने के कारण ही शिव पुरुष भी है और स्त्री भी,तभी शिव अर्द्धनारीश्वर कहलाये। शिव ने अपने अर्द्धनारीश्वर रूप के ब्रम्हा जी को दर्शन देकर प्रजननशील प्राणी के सृजन की प्रेरणा दी।

तीसरा नेत्र
भगवान शिव स्वयं भू है जिनका न आदि है न अंत जो जन्म मृत्यु से परे है।शिवजी को त्रिनेत्रधारी के नाम से भी जाना जाता है।त्रिदेवों में शिवजी ही है जिनके मस्तक पर तीसरा नेत्र है जिसमे तमोगुण का वास है ।शिवजी से जुड़े कई रहस्य है जो आज भी देखने को मिल जाते है।हम बात कर रहे है उनके तीसरे नेत्र की जिनका जिक्र शिव पुराण में मिलता है। शिवजी की तीसरी आंख को प्रलय कहा जाता है,कहते है शिव जी के तीसरे नेत्र से निकलने वाली ऊर्जा एक दिन सृष्टि को भस्म कर देगी,शिवजी के एक नेत्र में चंद्रमा दूसरे नेत्र में सूर्य का वास है।जिसमे दाएं नेत्र में सत्वगुण और बाएं नेत्र में रजोगुण और तीसरे नेत्र में तमोगुण का वास है। तीसरे नेत्र को विवेक भी माना गया है क्योंकि तीसरा नेत्र शिवजी के आज्ञाचक्र की विवेक बुद्धि का स्रोत है।जो योग के द्वारा ही जाग्रत किया जा सकता है। एक सामान्य जीव योग क्रिया द्वारा उस तीसरे नेत्र विवेक बुद्धि के स्रोत पर ध्यान केंद्रित कर आज्ञाचक्र के माध्यम से अपनी वर्तमान अवस्था मे रहते हुए दूसरी अवस्था मे विकसित हो सकता है।यही त्रिनेत्र है जो ऊर्जावान है,जो प्रलय है योग द्वारा उस आंख से वह सबकुछ देख सकते है जो ब्रम्हांड में घटित होने वाला है,जो हो चुका है।जो आम आंखों से नही देखा जा सकता दोनों भौहों के मध्य विराजित आज्ञाचक्र जो योग द्वारा विवेक बुद्धि का तीसरा नेत्र खुल जाने पर अपने वर्तमान चेतन में रहते हुए एक सामान्य जीव शिव तत्व को प्राप्त होता है।

शीतल रॉय
इंदौर

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