”छोटी-सी प्यारी-सी नन्ही-सी बिटिया”

रह-रह कर याद आती है
वह छोटी-सी प्यारी-सी नन्ही-सी बिटिया
बहुत, बार-बार….
मन-ही-मन मुसकराने वाली
सारी दुनिया से न्यारी
वह कोमल-सी छुटकी-सी फूलों-सी बिटिया.

प्रश्न उठता है यह बार-बार
क्यों होती है बेटी भाव-प्रवीणा
बेटों की तुलना में
कोमल, कर्तव्य-अनुप्रेरित और सहृदय ?
प्रश्न शाश्वत , उत्तर अब भी अनुत्तरित !!!
त्रासद है फिर भी ….
बेटी ‘बेटी’ ही रहती है आज भी ,
वह होती ‘बेटा’ क्यों नहीं
हमारी दृष्टि में…. दुनिया की मानसिकता में ?

Author: Dr. Surendra Yadav ( डॉ. सुरेन्द्र यादव )

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