मैं आज़ाद कहाँ हुई?

माँ के आँचल से उतरकर बस धरा पर पैर रखा ही था ,
लगा कि मैं आज़ाद हो गयी
पिता कि उंगली थामे थामे , अचानक एक दिन अकेले कदम चल पड़े ,
लगा कि मैं आज़ाद हो गयी
पायल की रून-झुन , छुन-छुन गुंजाती आँगन में दौड़ने लगी ,
लगा कि मैं आज़ाद हो गयी
घर का आँगन छोड़ बचपन कभी टिप्परी कभी लुक्काछिप्पी खेलते बिताने लगी ,
लगा कि मैं आज़ाद हो गयी
गुड्डा-गुड्डी स्कूल में संगी साथियों से बदल गए ,
लगा कि मैं आज़ाद हो गयी
पहला अक्षर , पहला शब्द लिखकर पाई शाबाशी से प्रफुल्लित किताबें पढ़ने लगी ,
लगा कि मैं आज़ाद हो गयी
शिक्षा ही नहीं , संस्कारों के मायने समझने लगी ,
लगा कि मैं आज़ाद हो गयी
माता – पिता की आकांषाओं को आशीर्वाद समझ पूरा करने में सफल रही ,
लगा कि मैं आज़ाद हो गयी
अपनों के सपने मुक्कमिल करती राह में दोस्तों के पंखों ने परवाज़ दी ,
लगा कि मैं आज़ाद हो गयी
दोस्तों की भीड़ में नज़र ने किसी अनोखे को चुन अपनेपन की सौगात दी ,
लगा कि मैं आज़ाद हो गयी
उम्र के इस पड़ाव में मैं किसी उन्मुक्त पंछी सी ,बहती हवा का झोंका बन गयी,
लगा कि मैं आज़ाद हो गयी
बढ़ते प्रयासों से हर चाहत को मुट्ठी में बंद करने लगी ,
लगा कि मैं आज़ाद हो गयी
नई राह , नए रिश्तों को थामे नई जगह हमसफर संग चली आई ,
लगा कि मैं आज़ाद हो गयी
नया रिश्ता पत्नी का , नए परिवार में बेटी से बहू बन गयी ,
लगा कि मैं आज़ाद हो गयी
नए घर की अपेक्षा और उन अपेक्षाओं में खरी उतरने लगी ,
लगा कि मैं आज़ाद हो गयी
जिंदगी का चक्र पूरा हुआ जब ममता ने मेरे द्वार दस्तक दी,
लगा कि मैं आज़ाद हो गयी
बेटी , पत्नी , बहू , बहन जैसे कई रिश्तों को सींचते सींचते मैं माँ बन गयी,
लगा कि मैं आज़ाद हो गयी
माँ और माँ का कर्तव्य इस अंतर को पाटते-पाटते वर्षों बीत गए
लगा कि मैं आज़ाद हो गयी
बदलता समय , बढ़ता परिवार , बढ़ती जरूरतें सब मनचाहा पाने लगी,
लगा कि मैं आज़ाद हो गयी
इतने सालों से…….
घर में , नौकरी में , रिश्तों में , दोस्तों में बंटने लगी , खुद को बाँटने लगी
अब लगने लगा क्या मैं वाकई आज़ाद हो गयी?

आधी उम्र बीत गयी , आधी रह गयी शायद
अपेक्षा , आकांषा, जिम्मा सब बढ़ ही रहा है शायद
खुद को भुला वक़्त की बयार के संग बहती गयी शायद
घुटन , जकड़न , थकान को न्योता दे दिया है शायद
आज़ाद हो गयी , आज़ाद हो गयी सोचते -सोचते आज़ादी के मायने भूल गयी शायद
कौन सी आज़ादी ?
कैसी आज़ादी ?
किस से आज़ादी ?
इसी असमंजस में डूबी आज़ाद कल्पना को ढूंदना चाहूंगी एक दिन शायद

Author: Kalpana Pandey (कवियत्री कल्पना पाण्डेय)

Related Posts

२०२३ की सबसे शानदार कविता

एक अकेला पार्थ खडा है भारत वर्ष बचाने को।सभी विपक्षी साथ खड़े हैं केवल उसे हराने को।।भ्रष्ट दुशासन सूर्पनखा ने माया जाल बिछाया है।भ्रष्टाचारी जितने कुनबे सबने हाथ मिलाया है।।समर…

रंग… अब बिदा भये

बासन्ती बयारों के संग आये रंग, फ़ागुण में छाए और जमकर बरसे अगले बरस फिर लौटकर आने का वादा कर छोड़ गए अपनी रंगत चौक-चौबारों, गली-मोहल्लों में छोड़ गए अपने…

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

You Missed

इंदौर के इतिहास में पहली बार कांग्रेस प्रत्याशी ने चुनाव मैदान छोड़ा

  • By admin
  • April 30, 2024
  • 400 views
इंदौर के इतिहास में पहली बार कांग्रेस प्रत्याशी ने चुनाव मैदान छोड़ा

मध्य प्रदेश में बना दुनिया का सबसे ऊंचा जैन मंदिर

  • By admin
  • April 29, 2024
  • 498 views
मध्य प्रदेश में बना दुनिया का सबसे ऊंचा जैन मंदिर

महाकाल मंदिर में शुल्क देकर भी शीघ्र दर्शन नहीं कर सकेंगे

  • By admin
  • December 27, 2023
  • 478 views
महाकाल मंदिर में शुल्क देकर भी शीघ्र दर्शन नहीं कर सकेंगे

जब दिल ही टूट गया

  • By admin
  • December 27, 2023
  • 488 views

चार वेद, जानिए किस वेद में क्या है….?

  • By admin
  • December 21, 2023
  • 523 views
चार वेद, जानिए किस वेद में क्या है….?

भगवान के साथ रोटी

  • By admin
  • December 21, 2023
  • 384 views
भगवान के साथ रोटी