शाही परम्परा के साथ सिंधिया परिवार मनाता है दशहरा उत्सव

स्वतंत्रता बाद तरीका बदला लेकिन आयोजन जारी रहा। देश के स्वतंत्र हो जाने के बाद राज परिवार का शाही तामझाम खत्म हो गया और महल की तरफ से होने वाला आयोजन हिन्दू दशहरा समिति के नाम से आयोजित होने लगा। इसमें शमी पूजन के बाद सिंधिया परिवार के पुरुष मुखिया इस अपने परम्परागत शाही लिबास में भव्य चल समारोह के साथ दौलतगंज में आयोजित होने वाले दशहरा मिलान समारोह में पहुँचते थे। स्व माधव राव सिंधिया कुछ वर्ष तक इस आयोजन में जाते रहे और संक्षिप्त सम्बोधन भी देते थे लेकिन बाद में यह आयोजन बंद हो गया। लेकिन दशहरा समारोह वैसे ही आज भी जारी है।

ग्वालियर | देश में तीन ही शाही दशहरे के आयोजन सैकड़ों वर्षों से प्रसिद्द है। कुल्लू, मैसूर और ग्वालियर। ग्वालियर में इसकी शुरुआत लगभग ढाई सौ वर्ष पहले सिंधिया राज परिवार ने की थी और भले ही राजतंत्र चला गया और लोकतंत्र आ गया लेकिन सिंधिया परिवार आज भी अपनी परम्परा को उसी शाही अंदाज में मनाता आ रहा है। बताते हैं कि ग्वालियर में इस शाही दशहरे को मनाने की परम्परा लगभग ढाई सौ वर्ष पहले सिंधिया परिवार के तत्कालीन महाराज ने तब शुरू की जब वे अपनी राजधानी मालवा से हटाकर ग्वालियर लाये। यहाँ उन्होंने गोरखी स्थित अपने महल में अपने कुलगुरु बाबा मंसूर शाह का स्थान बनवाया और मांढरे की माता के नीचे मैदान को दशहरा मैदान के रूप में चयनित किया। पहले जब सिंधिया राज परिवार गोरखी स्थित महल में रहता था तो दशहरा को हाथी, घोड़ा और पैदल सैनिको के साथ महाराज का दशहरा उत्सव महाराज बाड़ा से शुरू होता था। महाराज बाबा मंसूर साहब की आराधना के बाद यहाँ से निकलते थे और फिर वह शहर के मुख्य मार्गों से होते हुए दशहरा मैदान पहुंचते थे और वहां शमी पूजन करते थे। बाद में यह जलसा जयविलास से शुरू होने लगा। तब रियासत से जुड़े तमाम राजे – रजबाड़ों के लोग, प्रमुख जमींदार और जागीरदारों की मौजूदगी होती थी जो दशहरे पर महाराज से जुहार करने के लिए यहाँ पहुँचते थे। बाद में शाम को प्रमुख सरदारों के साथ दशहरे की भोज पार्टी का आयोजन होता था।

शमी पूजन परम्परा अभी भी जारी हैं। सिंधिया परिवार का परम्परागत दशहरे पर होने वाले शमी पूजन की परम्परा आज भी बदस्तूर जारी है। दशहरा पर सिंधिया परिवार के महाराज और युवराज सुबह मंसूर साहब की पूजा-अर्चना करने जाते है और शाम को परम्परागत शाही लिबास में सिंधिया महाराजा के लिए तय वस्त्र और आभूषण और तलबार लेकर मांडरे की माता के नीचे स्थित दशहरा मैदान में पहुँचते हैं और महाराष्ट्र से आये कुल पुरोहित दशहरा पूजन कराते हैं। इसके बाद सिंधिया तलवार से शमी की दाल को प्रतीकात्मक स्पर्श करके काटते हैं फिर इसकी पत्तियां लूटने की होड़ मचती है और फिर लोग यह पत्ती सिंधिया को भेंट कर उन्हें दशहरे की मुबारकवाद देते हैं। शाम को दरबास खास में पुराने सरदारों के परिजन महाराज को बधाई देने महल में पहुँचते हैं।

ग्वालियर में कैसी शुरू हुआ शाही दशरे का आयोजन
सिंधिया राज परिवार के नजदीक रहे, विधायक तथा अनेक पदों पर रहे स्वर्गीय ब्रिगेडियर नरसिंह राव पंवार के अनुसार सिंधिया राजवंश की यह परम्परा लगभग चार सौ साल पुरानी है। पहले इनकी राजधानी उज्जैन में थी तब वहां यह परम्परा शुरू हुई लेकिन महादजी सिंधिया ने पानीपत युद्ध में जीत के बाद ग्वालियर को अपना केंद्र बनाया। लेकिन मुगलों के बढ़ते प्रभाव को रोकने और देशी राजाओं के नित नए होने वाले विद्रोहों को ख़त्म करने की दृष्टि से महाराजा दौलत राव सिंधिया ने लश्कर शहर बसाकर ग्वालियर को राजधानी के रूप में स्थापित किया। शाही दशहरे के आयोजन की परम्परा भी उन्होंने ही शुरू की। स्वतंत्रता पूर्व तक यहाँ महाराज को इक्कीस तोपों की सलामी भी दी जाती थी।

शमी वृक्ष का पूजन और और इसका वितरण क्यों होता है ?
दशहरा पर सिंधिया परिवार का मुखिया दशहरा पूजन के बाद शमी वृक्ष की एक डाल अपनी तलवार से काटता है और फिर उसकी पट्टियां लूटी जातीं है। ग्वालियर के शाही दशहरा मैदान में पहले शमी का विशाल वृक्ष होता था लेकिन अब सारे पेड़ काट दिए गए और इसकी बड़े मैदान में भी अनेक भवन बनन गए और अब थोड़ा स्थान ही सुरक्षित रह गया है इसलिए सिंधिया के पहुँचने से पहले कारिंदे शमी वृक्ष की पत्तियों से लदी एक बड़ी डाल काटकर यहाँ पेड़ की तरह स्थापित करते हैं और अब उससे पत्तियां लूटी जाती है। शमी की पत्तियों की किंवदंती महाभारत इस सोने से आर्थिक सम्पन्नता काल से जुडी है। माना जाता है कि दशहरे के दिन ही पांडव अपना वनवास काल पूरा करके हस्तिनापुर लौटे थे और वन गमन से पूर्व अपने अस्त्र शमी वृक्ष में ही छुपकर रख गए थे। लौटकर वे उसी वृक्ष के पास सबसे पहले गए लेकिन जब वे अपना राज पाठ संभालने हस्तिनापुर पहुँचते इससे पहले ही कौरवों ने राज सौंपने से इंकार कर दिया। लेकिन वहां की प्रजा शहर से बाहर स्थित उसी शमी वृक्ष के पास पहुँच गयी। पांडव राज की परम्परानुसार महाराज दशहरा पर बधाई देने आने वालों को कोई न कोई कीमती उपहार देते थे लेकिन उस दशहरा पर उनके पास कुछ भी नहीं था तो अर्जुन ने पूजन के बाद शमी पेड़ की डंडी पर तलवार से प्रहार किया और प्रजा और राजा दोनों ने एक दूसरे को इसकी पत्तिया भेंट स्वरुप दी क्योंकि उनके पास उपहार देने के लिए और कुछ था ही नहीं। तभी से इसे सोना कहा जाता है और आज भी लोग वर्ष भर तक इसे अपने सोने -चांदी के आभूषणों के साथ रखते हैं। मान्यता है कि सोने की पत्तियां खजाने में रखने से खजाने में सम्पन्नता निरंतर रहती है।

महल में लगता है दशहरा दरबार
राजकाल में दशहरे के दिन जयविलास पैलेस के ऊपरी भाग में स्थित हॉल में महराज का दशहरा दरबार लगता था इसमें आमजन की एंट्री नहीं होती थी। इसमें सिंधिया राजतंत्र के सरदार, आसपास के महाराज, राजा और बड़े जमींदार और जागीरदारों को ही प्रवेश मिलता था। इस दौरान उपहार देने की भी परम्परा रहती थी। विशिष्ट लोगों से मिलने के बाद महाराज आमजनों से भी भेंट करते थे।
दशहरे के दिन दशहरा मैदान पर सिंधिया परिवार का राजशाही के बैंड द्वारा परम्परागत वाद्य यंत्र और धुन बजाकर उनका स्वागत होता है। यहाँ पहुंचकर पहले राज पुरोहित मंत्रोच्चार के साथ सिंधिया राज परिवार के प्रतीकों चिन्हों का पूजन करते हैं फिर शमी की डाल काटने और सोना लूटकर एक – दूसरे को बधाई देने की परम्परा का निर्वाह करते हैं।

ग्वालियर में शाही दशहरा
देशभर के साथ ग्वालियर में भी आज दशहरा का त्यौहार हर्षोल्लास के साथ मनाया जा रहा है। लेकिन ग्वालियर में इसका ख़ास आक्रषण होता है सिंधिया परिवार का दशहरे पर किया जाने वाला शाही शमी पूजन। आज इस पूजन में ज्योतिरादित्य सिंधिया अपने पुत्र महान आर्यमन सिंधिया के साथ अपने परम्परागत महाराजा वाले लिबास में पहुंचे और जैसे ही उनकी तलवार ने शमी वृक्ष को छुआ वैसे ही उसकी पत्तियां लूटने पहले से खड़ा हुजूम उमड़ पड़ा। ग्वालियर का दशहरा पूरे देश भर में विख्यात है यहां सैकड़ों बरसों से दशहरे के दिन सिंधिया राजपरिवार पूरे दिन भर पूजा अर्चना और देव स्थानों के दर्शन करता है, केंद्रीय नागरिक उड्डयन मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया ग्वालियर के सिंधिया राजपरिवार के महाराज कहलाते हैं इस नाते वह दशहरे पर ग्वालियर के महाराज बनकर राजवंश की परंपराओं को निभाते दिखाई देते हैं।

परम्परागत बैंड होता हैं स्वागत
सिंधिया के मैदान में पहुँचने पर सबसे पहले सिंधिया राजशाही के बैंड ने परंपरागत वाद्य यंत्रों की धुनों के बीच उनका स्वागत किया। सके बाद सिंधिया और उनके पुत्र मंच पर पहुंचे जहां मराठी पुरोहितों ने शाही परम्परानुसार शमी पूजन किया और जैसे ही ज्योतिरादित्य सिंधिया ने शमी के वृक्ष से तलवार की नौंक स्पर्श कराई परम्परानुसार आसपास खड़े सभी लोगों ने उसकी पट्टियां लूटना शुरू कर दीं जिसे सोना कहा जाता है। इसके बाद सिंधिया ने सबसे पहले सिंधिया रियासत के ओहदेदारों के परिवार से आये लोगों से भेंट कर दशहरे की बधाई दी और फिर आमजन से भेंट कर उन्हें भी शुभकामनाएं दीं।

शमी वृक्ष का पूजन और और इसका वितरण क्यों होता है
दशहरा पर सिंधिया परिवार का मुखिया दशहरा पूजन के बाद शमी वृक्ष की एक डाल अपनी तलवार से काटता है और फिर उसकी पत्तियां लूटी जातीं है। ग्वालियर के शाही दशहरा मैदान में पहले शमी का विशाल वृक्ष होता था लेकिन अब सारे पेड़ काट दिए गए और इसकी बड़े मैदान में भी अनेक भवन बनन गए और अब थोड़ा स्थान ही सुरक्षित रह गया है इसलिए सिंधिया के पहुँचने से पहले कारिंदे शमी वृक्ष की पत्तियों से लदी एक बड़ी डाल काटकर यहाँ पेड़ की तरह स्थापित करते हैं और अब उससे पत्तियां लूटी जाती है।

शमी की पत्तियों से जुडी मान्यता
शमी की पत्तियों की किंवदंती महाभारत इस सोने से आर्थिक सम्पन्नता काल से जुड़ी है। माना जाता है कि दशहरे के दिन ही पांडव अपना वनवास काल पूरा करके हस्तिनापुर लौटे थे और वन गमन से पूर्व अपने अस्त्र शमी वृक्ष में ही छुपकर रख गए थे। लौटकर वे उसी वृक्ष के पास सबसे पहले गए लेकिन जब वे अपना राजपाट संभालने हस्तिनापुर पहुँचते इससे पहले ही कौरवों ने राज सौंपने से इंकार कर दिया।लेकिन वहां की प्रजा शहर से बाहर स्थित उसी शमी वृक्ष के पास पहुँच गयी। पांडव राज की परम्परानुसार महाराज दशहरा पर बधाई देने आने वालों को कोई न कोई कीमती उपहार देते थे लेकिन उस दशहरा पर उनके पास कुछ भी नहीं था तो अर्जुन ने पूजन के बाद शमी पेड़ की डंडी पर तलवार से प्रहार किया और प्रजा और राजा दोनों ने एक दूसरे को इसकी पत्तिया भेंट स्वरुप दीक्योंकि उनके पास उपहार देने के लिए और कुछ था ही नहीं।तभी से इसे सोना कहा जाता है और आज भी लोग वर्ष भर तक इसे अपने सोने -चांदी के आभूषणों के साथ रखते हैं। मान्यता है कि सोने की पत्तियां खजाने में रखने से खजाने में सम्पन्नता निरंतर रहती है।

लेखक :- देव श्रीमाली

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